कृष्ण पर दोहे

मोहन लखि जो बढ़त सुख, सो कछु कहत बनै न। नैनन कै रसना नहीं, रसना कै नहिं नैन॥ श्रीकृष्ण को देखकर जैसा दिव्य आनंद प्राप्त होता है, उस आनंद का कोई वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि जो आँखें देखती हैं, उनके तो कोई जीभ नहीं है जो वर्णन कर सकें, और जो जीभ वर्णन कर सकती है उसके आँखें नहीं है। बिना देखे वह बेचारी जीभ उसका क्या वर्णन कर सकती है! कोऊ कोटिक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार। मो संपति जदुपति सदा, बिपति-बिदारनहार॥ कोई चाहे करोड़ों की संपत्ति एकत्र कर ले, चाहे कोई लाख हजार अर्थात् दस करोड़ की संपदा प्राप्त कर ले। मुझे उससे और उसकी संपदा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। कारण यह है कि मेरी असली संपत्ति तो यदुवंशी कृष्ण हैं, जो सदा ही विपत्तियों को विदीर्ण करने वाले हैं। सुमन-बाटिका-बिपिन में, ह्वै हौं कब मैं फूल। कोमल कर दोउ भावते, धरिहैं बीनि दुकूल॥ वह दिन कब आएगा जब मैं पुष्पवाटिकाओं अर्थात् फूलों की बग़ीची या बाग़ों में ऐसा फूल बन जाऊँगा जिसे चुन-चुनकर प्रियतम श्रीकृष्ण और राधिका अपने दुपट्टे में धर लिया करेगी। कब हौं सेवा-कुंज में, ह्वै हौं स्याम तमाल। लतिका कर गहि बिरमिहैं, ललित लड़ैतीलाल॥ मैं वृंदावन के सेवा-कुंज में कब ऐसा श्याम तमाल वृक्ष बन जाऊँगा जिसकी लताओं या शाखाओं को पकड़ कर प्रियतम श्रीकृष्ण विश्राम किया करेंगे। त्राहि तीनि कह्यो द्रौपदी, तुलसी राज समाज। प्रथम बढ़े पट तिय विकल, चहत चलित निज काज॥ तुलसी कहते हैं कि राजसभा में ( जब दुःशासन द्रौपदी का चीर खींचने लगा तब) द्रौपदी ने घबड़ा कर तीन बार 'त्राहि-त्राहि' पुकारा। पहली त्राहि कहते ही वस्त्र बढ़ गया, दूसरी में भगवान् व्याकुल हो उठे कि द्रौपदी को सताने वालों के लिए अब क्या किया जाए? (तीसरी में) चकित होकर अपने कार्य की इच्छा करने लगे (अर्थात् दुशासनादि के संहार का निश्चय कर लिया) अर्थात् भक्त की सच्चे मन से की हुई एक भी पुकार व्यर्थ नहीं जाती। थौरें ही गुन रीझते, बिसराई वह बानि। तुमहूँ कान्ह, मनौ भए, आजकाल्हि के दानि॥ हे कृष्ण, आप पहले तो थोड़े-से ही गुणों पर रीझ जाया करते थे, किंतु अब लगता है कि आपने अपनी रीझने वाली आदत या तो विस्मृत कर दी है या छोड़ दी है। आपकी इस स्थिति को देखकर ऐसा आभासित होता है मानों आप भी आजकल के दाता बन गए हों। सोई भाजन प्रेमरस, प्रकट कृष्ण के गात्र। पय पुंडरिकनी को न जो, रहि बिन कंचन पात्र॥ वही प्रेम-रस का पात्र है जो श्रीकृष्ण के गात्र से उत्पन्न हो (अर्थात पुष्टिमार्गी हो)। सिंहनी का दूध कंचन के पात्र के अतिरिक्त अन्य पात्र में नहीं रह सकता। नोंघा प्होंप सुगंधि ते, हरि हरि मन सुच पाय। दसई पंकज प्रेम बिन, रुके कहूँ नहिं जाय॥ श्रीकृष्ण का भ्रमर रूपी मन नवधा भक्ति रूपी पुष्प की सुगंध से संतुष्ट होता है, किंतु कमल रूपी (दसई) प्रेमलक्षणा भक्ति के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं रुकता नहीं। मिलिहैं कब अँग छार ह्वै, श्रीबन बीथिन धूरि। परिहैं पद-पंकज जुगुल, मेरी जीवन-मूरि॥ मैं राख या धूल बनकर कब ब्रज के जीवन के मार्गों या पगडंडियों में जाऊँगा ताकि मेरे जीवनाधार श्री राधा-कृष्ण के चरण-कमल मुझ पर पड़ते रहें। पीतांबर परिधान प्रभु, राधा नील निचोल। अंग रंग सँग परस्पर, यों सब हारद तोल॥ प्रभु पीतांबर धारण करते हैं और राधा नीली ओढ़नी पहनती है। इसका हारद तोल (हार्दिक भाव का रहस्य मर्म) यह है कि ऐसा करने से दोनों को (प्रिय के) अंग रंग के संग होने की प्रतीति होती है। सभा सभासद निरखि पट, पकरि उठायो हाथ। तुलसी कियो इगारहों, बसन बेस जदुनाथ॥ जिस समय द्रौपदी ने सभा और सभासदों की ओर देखकर (किसी से भी रक्षा की आशा न समझकर) एक हाथ से अपनी साड़ी को पकड़ा और दूसरे हाथ को ऊँचा करके भगवान् को पुकारा, तुलसी कहते हैं कि उसी समय यादवपति भगवान् श्री कृष्ण ने ग्यारहवाँ वस्त्रावतार धारण कर लिया (दस अवतार भगवान् के प्रसिद्ध हैं, यह ग्यारहवाँ हुआ)।

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